Bhopalbreaking newschattisgarhDelhiHyderabadINDIAJaipurmadhya pradeshPoliticsRaipurTop-Stories

जीएसटी, नोटबंदी, माई के लाल वाले घमंड से भाजपा  को VRS

( कीर्ति राणा)

आमजन को तो पता था बस नरेंद्र मोदी, अमित शाह से लेकर राजस्थान की सीएम वसुंधरा (V), छत्तीसगढ़ के सीएम रमनसिंह (R) और शिवराज सिंह (S) को ही  अनुमान नहीं था कि इन तीन राज्यों में भाजपा को वीआरएस (स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति) मिलने वाली है।
राज्यों के चुनाव में तीन हिंदी बेल्ट वाले क्षेत्रों में भाजपा की उम्मीदों पर जिस तरह से पानी फिरा है यह राहुल गांधी की आंधी कम खुद उसके कार्यकर्ताओं की बद्दुआ का असर ज्यादा नजर आता है। पीएमजी से लेकर मोटा भाई तक के भाषणों में बिगड़े बोल और इनकी सभाओं में कम होती भीड़ के बाद भी जनता की नब्ज पहचानने वाले धुरंधर यह नहीं समझ पाए कि इन राज्यों का मतदाता उनके लच्छेदार भाषणों वाली मिमिक्री  देखते-सुनते बोर होने लगा है।
दो साल पहले की गई नोटबंदी, खामियों वाले जीएसटी
को लागू करने में मनमानी, छग में धान घोटाला, मप्र में व्यापम सहित अन्य घोटालों के साथ आरक्षण के मामले में ‘माई के लाल’ शिवराज सिंह को ऐसा झटका लगेगा यह भाजपा कभी महसूस ही नहीं कर सकी तो इसका एकमात्र यही कारण रहा कि राज्यों से लेकर केंद्र तक फैले घमंड के घने कोहरे में उसे हकीकत नजर ही नहीं आई। नई नई योजनाएं लाने वाले अफसर मंडली के दरबारी कानड़ा राग ने शिवराज सिंह को तारे दिखा दिए और संघ की रिपोर्ट को दरकिनार कर मोदी-शाह का शिवराज के प्रत्याशियों वाली सूची पर भरोसा करना भारी पड़ गया।चुनाव परिणाम जब पूरी तरह से कांग्रेस की झोली भरते नजर आने लगे तब ही कैलाश विजयवर्गीय ने मुंह खोला और स्वीकारा कि हम से टिकट देने में गड़बड़ी हुई है।
यही नहीं कैडर बेस पार्टी कहलाने वाली भाजपा के सूरमा भी गरीब कार्यकर्ता की हाय को नहीं समझ सके।भाजपा के प्रदेश अध्य़क्ष राकेश सिंह तो नंदू भैया से भी गए गुजरे साबित हुए, संगठन मंत्री सुहास  भगत से तो अरविंद मेनन हजार गुना बेहतर थे।पार्टी के पितृ पुरुष कुशाभाऊ ठाकरे के चित्र पर माल्यार्पण करने वाले अध्यक्षों ने जब से पार्टी में कारपोरेट कल्चर को गले लगाया है तब से यह चिंतन करने का वक्त ही नहीं मिल रहा कि ठाकरे जी की सादगी क्यों कार्यकर्ताओं को सम्मोहित कर लेती थी, आज तो मोटाभाई का नाम लेते हुए भी कार्यकर्ता के चेहरे पर खौफ की छाया नजर आती है। नोटबंदी के बावजूद दिल्ली में सेवन स्टार सुविधाओं वाला पार्टी भवन भले ही बाकी पार्टियों की बुरी हालत का मजाक उड़ाता हो लेकिन पंद्रह साल से कब्जे वाले राज्यों में जड़ें इतनी कमजोर हो रही हैं यह चिंतन भी नहीं किया तो यह जोरदार झटका अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए बड़े गड्डे में भी तब्दील हो सकता है।एग्जिट पोल तो ठीक खुद को मप्र का सबसे बड़ा सर्वेयर कहने वाले शिवराज सिंह का गणित भी कमजोर साबित हुआ है।हार स्वीकार करने के बाद अब शिवराज क्या करेंगे, बेटे कार्तिकेय की फूल वाली दुकान पर गुलदस्ते बेचेंगे ना ही फार्महाउस की गायों के दूध का हिसाब किताब रखेंगे।सुषमा स्वराज लोकसभा चुनाव लड़ने से इंकार कर चुकी हैं, विदिशा से लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुट जाएंगे, मतदाताओं ने यदि साथ दिया और केंद्र में भाजपा को फिर मौका मिल गया तो शिवराज को कृषि,ग्रामीण मंत्रालय में प्रतिभा दिखाने का अवसर मिल जाएगा।

शिवराज भी रमन सिंह की तरह चौथी बार भाजपा की ही सरकार बनने को लेकर आश्वस्त थे। 230 सीटों में से कांग्रेस को आधी से एक कम 114 सीटें मिली हैं, यूं तो पिछले चुनाव के मुकाबले 57 सीटें ज्यादा मिली हैं लेकिन जो 7 निर्दलीय जीते हैं वे ही कांग्रेस का भाग्य राजस्थान की तरह चमकाएंगे। इन निर्दलियों ने कांग्रेस को समर्थन देने का पत्र भी सौंप दिया है। कमलनाथ, सिंधिया, दिग्विजय, अरुण यादव, विवेक तन्खा की मंडली राज्यपाल आनंदी बेन से मिल भी ली है। शिवराज सिंह ने हार स्वीकारने और सीएम के रूप में अपनी अंतिम प्रेस कांफ्रेंस में क्षमावाणी पर्व भी मना लिया है।गोवा में हाथ आई सत्ता को फिसलते देख चुकी कांग्रेस मप्र में सरकार गठन मामले में फूंक फूंक कर कदम रख रही है।पंद्रह साल के वनवास के बाद यदि कांग्रेस सत्ता में लौटी है तो उसे सारा श्रेय प्रदेश के मतदाताओं को देना चाहिए जिसने भाजपा से मुक्ति पाने के लिए बेहतर विकल्प के अभाव में कांग्रेस को वोट देने का निर्णय लिया। इस बार का चुनाव सही अर्थ में तो जनता ने ही लड़ा, उसने विरोध की पतंग को ठुनकी देकर लहराया, कांग्रेस तो बस पेंच लड़ाने का मौका झपटने आ गई।शिवराज सरकार के साथ अंडरहैंड डिलिंग के आरोपों में घिरी रही कांग्रेस 2003 और 2008 में इसीलिए हारती रही।
मप्र में कांग्रेस ने दस दिन में किसानों का दो लाख तक का कर्ज माफ करने जैसे वादे के मोहपाश में ग्रामीण-किसान मतदाताओं को जकड़ तो लिया लेकिन उसका यही वादा उसके लिए भस्मासुर साबित ना हो जाए क्योंकि शिवराज  मप्र के गले में 1.85 हजार करोड़ के कर्ज का फंदा कस कर मुक्त हो गए हैं। इस कर्ज के चलते कांग्रेस किसानों का कर्ज माफ करने के लिए पैसा कैसे जुटाएगी जबकि केंद्र में भाजपा सरकार है और राज्यपाल आनंदीबेन भी अब आंगनवाड़ियों का दौरा करने की अपेक्षा सरकार के दैनंदिन क्रियाकलाप का लेखाजोखा रखेंगी।

सर्वाधिक चौंकाने वाले परिणाम छत्तीसगढ़ से आए हैं यहां की 90 सीटों में से कांग्रेस ने 68 सीटों पर कब्जा कर पिछले चुनाव में मिली (39) सीटों में 29 सीटों की बढ़ोत्री की है।भाजपा को 16 सीटों से ही संतोष करना पड़ा है, पिछले चुनाव में उसे 49 सीटें मिली थीं। न्यूज चैनलों के एग्जिट पोल भी यहां फेल साबित हुए हैं। एग्जिट पोल को लेकर आम दर्शक भी जान गया है कि जो चैनल जिस दल के भक्तिभाव में डूबा रहता है उसके पोल में उसी दल की सरकार बनवाने की पोलपट्टी चलती है।
राजस्थान के मतदाताओं जैसा मिजाज सारे देश का हो जाए और हर पांच साल में विरोधी दल को सत्ता सिंहासन मिलने लगे तो सीएम की कुर्सी अपने नाम होने का भ्रम पालने वाले दल और नेता वाकई जन की चिंता करने लग जाएं।यहां के मतदाताओं का मूड बाकी देश को पता था इसीलिए 199 सीटों वाले रंगीले राजस्थान ने 99 सीट की बाउंड्री पर कांग्रेस को खड़ा कर भाजपा को 73 सीटें ही दी हैं, अन्य जो 27 जीते हैं वे ही कांग्रेस सरकार के नगीने साबित होंगे। अभी यहां जो पेंच फंसा है वह यह कि सीएम कौन अशोक गेहलोत या सचिन पायलट? यह निर्णय कांग्रेस को दोधड़ों में बांटने की दरार भी पैदा करेगा।
मिजोरम में एमएनएफ को मिली सफलता ने कांग्रेस को गहरे गड्डे में डाल दिया है। 40 सीटों वाले पूर्वोत्तर के इस राज्य में पिछले चुनाव में 29 सीटें प्राप्त करने वाली कांग्रेस को मात्र 5 सीटें मिलने से भाजपा खेमा खुश हो सकता है कि यहां से कांग्रेस को मतदाताओं ने एक तरह से विदाई के साथ भाजपा को एक सीट देकर आगमन का स्वागत कर दिया है।
तेलंगाना में समय से पहले विधानसभा चुनाव करा के टीआरएस पार्टी को 119 में से 88 सीटों पर सफलता से मुख्यमंत्री केसीआर ने अपना प्रभुत्व सिद्ध किया है, कांग्रेस को इस बार 19 सीटें ही प्राप्त हुई हैं जो पिछली बार के मुकाबले दो सीट कम है।केसीआर ने अब कांग्रेस, भाजपा छोड़कर बाकी दलों के साथ मोर्चा बनाने का विचार जाहिर कर आंध्र के चंद्रबाबू नायडू की तरह खुद को राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित करने के प्रयास का भी संकेत दे दिया है।
भाजपा नेता तो इन चुनाव को सेमीफाइनल मानने से इंकार करते रहे हैं लेकिन उत्साहित कांग्रेस के लिए तो ठंड के इस मौसम में तीन राज्यों के ये परिणाम च्यवनप्राश की शक्ति से कम नहीं है। भाजपा जिसे पप्पू कह कर मखौल उड़ाती रही वह पहलवान साबित होने लगा है । आमजन राहुल को पप्पू माने या नहीं लेकिन हिंदी बेल्ट वाले राज्यों में रैलियों और आक्रामक सभाओं के बाद भी मोदी-शाह को गप्पू और फेंकू मान लिया है, यदि ऐसा नहीं होता तो ये राज्य हाथ से नहीं फिसलते। सामान्य व्यवहार में भी गलती सुधारने के लिए अधिकतम तीन मौके दिए जाते हैं मप्र और छग में लोगों ने भाजपा के प्रचार अभियान की टेग लाईन चौहान पर ही चस्पा कर दी है माफ करो शिवराज।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Related Articles

Back to top button